सबसे अच्छी सवारी साइकिल
@iamshubham
आज भी साइकिल से अच्छी सवारी कोई और हो ही नहीं सकती। एक समय था जब साइकिल जीवन का एक अभिन्न अंग था। बाबूजी के साथ साइकिल पर बैठ कर के रोज शाम बाजार की सैर पर निकलना, गर्मी की दोपहरी में अचानक एक भोंपू की आवाज़ से बच्चों का झुंड जब मलाई वाले चाचा के इर्द-गिर्द इक्कठा हो जाता था और फिर चाचा अपने साइकिल पर लदे एक टिन के बक्से से एक एक कर सभी बच्चों को आठ आठ आने में मलाई देते थें, किसे भुला होगा वो दृश्य। कितना सुंदर रहा होगा वो वक़्त जब एक डाकिए के साइकिल की घंटी से गाँव में लोग अपने अपने घर के बहार निकल आते होंगे इस उम्मीद में कि उनका कोई अपना उन्हें ख़त भेजा होगा। जैसे लगता कि डाकिया उनके लिए ज़िंदगी भर खुश रहने की वजह अपने झोले में उठाये लेते आया हो।
उस उंमग, उस उत्साह, उस उल्लास को शब्दों में कैसे परिभाषित किया जाये जो जीवन में पहली बार हमें आत्मनिर्भरता का बोध कराती हो। पहली बार किसी के पीछे ना बैठना, बिना किसी सहारे के धीरे धीरे साइकिल को सँभालने की ख़ुशी को पन्नों पर उकेरना मुमकिन नहीं है। साइकिल चलना आ जाए बस फिर क्या, सुबह हो या शाम, ना सूरज की गर्मी से उत्साह फीका पड़े ना पवन की उलटी दिशा से हौसले पस्त हो। मन में बस एक ही रट होती है कि बस चलना है, दूर तक चलना है। जीवन के उस पहले आत्मनिर्भरता के रसास्वादन के आनंद में सब कुछ छोटा लगता है।
कभी टायर पंचर हो जाए दूर तक सफ़र में साइकिल ही तो साथी होती है, ऐसा लगता है जैसे किसी यार के कंधे पर हाथ रखे चलते जा रहे। कभी सफ़र लंबा हो तो मन की मीत बनती है गीत। अक्सर जब कोई साथ नहीं होता तो अकस्मात् ही होंठ गीत गुनगुनाने लगते है और इस गीत को संगीत देती है साइकिल की घंटी। यूँ ही घंटी टुनटुनाते सफ़र कब कट जाए पता नहीं चलता।
एक वो भी समय था जब दूल्हे को दहेज़ में साइकिल मिल जाती तो उसके मान प्रतिष्ठा में जैसे चार चाँद लग जाते। आसान नहीं थी सवारी साइकिल की, बाबू साहब लोगों की सवारी थी ये, आज के किसी मोटर गाडी से कम नहीं थी।
एक चीज़ बड़ी अच्छी थी इसमें, ना पेट्रोल की चिंता ना डीज़ल की झंझट, बस हफ्ते में दो दिन पंप से टायर में हवा मारो और निकल जाओ अपने मंज़िल की ओर। साइकिल पर ही इतना पसीना आ जाए कि आज के इस मॉर्निंग वॉक और जॉगिंग को कौन पूछे, एक रत्ती धुआं भी नहीं तो सभी देवतागण भी खुश।
उस उंमग, उस उत्साह, उस उल्लास को शब्दों में कैसे परिभाषित किया जाये जो जीवन में पहली बार हमें आत्मनिर्भरता का बोध कराती हो। पहली बार किसी के पीछे ना बैठना, बिना किसी सहारे के धीरे धीरे साइकिल को सँभालने की ख़ुशी को पन्नों पर उकेरना मुमकिन नहीं है। साइकिल चलना आ जाए बस फिर क्या, सुबह हो या शाम, ना सूरज की गर्मी से उत्साह फीका पड़े ना पवन की उलटी दिशा से हौसले पस्त हो। मन में बस एक ही रट होती है कि बस चलना है, दूर तक चलना है। जीवन के उस पहले आत्मनिर्भरता के रसास्वादन के आनंद में सब कुछ छोटा लगता है।
कभी टायर पंचर हो जाए दूर तक सफ़र में साइकिल ही तो साथी होती है, ऐसा लगता है जैसे किसी यार के कंधे पर हाथ रखे चलते जा रहे। कभी सफ़र लंबा हो तो मन की मीत बनती है गीत। अक्सर जब कोई साथ नहीं होता तो अकस्मात् ही होंठ गीत गुनगुनाने लगते है और इस गीत को संगीत देती है साइकिल की घंटी। यूँ ही घंटी टुनटुनाते सफ़र कब कट जाए पता नहीं चलता।
एक वो भी समय था जब दूल्हे को दहेज़ में साइकिल मिल जाती तो उसके मान प्रतिष्ठा में जैसे चार चाँद लग जाते। आसान नहीं थी सवारी साइकिल की, बाबू साहब लोगों की सवारी थी ये, आज के किसी मोटर गाडी से कम नहीं थी।
एक चीज़ बड़ी अच्छी थी इसमें, ना पेट्रोल की चिंता ना डीज़ल की झंझट, बस हफ्ते में दो दिन पंप से टायर में हवा मारो और निकल जाओ अपने मंज़िल की ओर। साइकिल पर ही इतना पसीना आ जाए कि आज के इस मॉर्निंग वॉक और जॉगिंग को कौन पूछे, एक रत्ती धुआं भी नहीं तो सभी देवतागण भी खुश।
सबसे अच्छी सवारी साइकिल
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