कृषि, अर्थव्यवस्था और किसान
@iamshubham
आजादी के 68 वर्ष बाद भी जब हम देश की अर्थव्यस्था पर नज़र फेरते हैं तो पाते हैं की आज भी सबसे ज्यादा लोगो को रोज़गार देने वाला कोई क्षेत्र है तो वो है कृषि। भारत कृषि के क्षेत्र में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा राष्ट्र है। आज भी देश की 60 फीसदी जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। महात्मा गांधी ने कहा था कि 'देश के अर्थव्यवस्था की रीढ़ है कृषि', और सकल घरेलु उत्पाद में 14 फीसदी की हिस्सेदारी यह समझने के लिए पर्याप्त है की कृषि देश की अर्थव्यवस्था में कितना महत्वपूर्ण योगदान कर रही है। इतना सब कुछ के बाद भी आज उत्पाद के सभी क्षेत्रों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा बदहाल स्थिति कृषि और किसानों की है।
आज लोगों के विकास की अवधारणा की परिधि इस कदर संकुचित हो गयी है की विकास का मतलब लोग चकाचौंध, बड़ी बड़ी फैक्ट्रीयों और इमारतों तक ही लगा पा रहे हैं। क्या औद्योगीकरण करने भर से देश का विकास संभव है ? क्या विकास के पाश्चात्य की अवधारणा ही असल मायने में भारत के लिए भी मान्य होगी ? ऐसे ही कुछ गंभीर बिंदु हैं जिन पर विचार और बहस की जरुरत है।
औद्योगिक क्षेत्र में वर्षों से निरंतर आगे बड़ रहे एशिया के सबसे समृद्ध और विकसित राष्ट्र चीन की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से उद्यगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर निर्भर है। हाल में जब सभी राष्ट्र वैश्विक मंदी से जूझ रहे थें तो चीन द्वारा निर्यात की गयी वस्तुओं की मांग पर भी नकारात्मक असर पड़ा और इसकी मांग में भारी गिरावट देखने को मिली जिसके कारण चीन की अर्थव्यवस्था पर भी दुर्गम प्रभाव पड़ा। यही कारण है की चीन को अपने निर्यात को तेज़ करने के लिए अपने मुद्रा का उन्मूलन करना पड़ा।
औद्योगीकरण को बढ़ावा देना एक हद तक वाज़िब हो सकता है पर इसका ये अर्थ नही की वर्षों से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि को कम आँका जाए।
वर्त्तमान स्थिति में किसानों की हो रही दुर्दशा एक गंभीर मसला है। 1960 में जब देश में हरित क्रांति की नींव रखी गई तो देश के कृषि उत्पाद में बढ़ोत्तरी हुई पर किसानों की स्थिति बदतर ही रही जिसके कारण आये दिनों किसानों के आत्महत्या जैसी खबरें आम सी हो गई हैं।ग्रामीण भंडारण योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना जैसे कई किसान हित की महत्वाकांक्षी योजनाओँ पर अरबों रूपये फूंकने के बाद भी स्थिति में सुधार होता नज़र नहीँ आ रहा। 1995 में जहाँ 10,720 किसानों ने आत्महत्या किया वहीँ 2004 में ये ग्राफ़ उछल कर 18,241 का आंकड़ा छू लिया। पिछले कई सालों की स्थिति में सुधार दर्ज करते हुए 2013 में 11,772 किसानों के आत्महत्या की खबर आई पर 2014 में स्थिति फिर से बिगड़ कर 12,360 पर पहुँच गई। आंकड़ों की माने तो किसानों की आत्महत्या में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा है। महाराष्ट्र में 2012 में 3,789 आत्महत्याओं को दर्ज किया गया तो वही जनसंख्या के नज़रिये से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश 745 मौतों के साथ छठे स्थान पर विराजमान हुआ तो बिहार में भी 68 किसानों ने आत्महत्या किया।
देश में औद्योगीकरण को बढ़ावा देना अच्छी बात है पर इस चक्कर में वर्षों से देश के अन्नदाता की ऐसी अनदेखी भविष्य के लिए अच्छे संकेत नही हैं। वर्षों से देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का अतिमहत्वपूर्ण योगदान रहा है ऐसे में किसानों को बदहाली से निज़ात दिलाने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए।
आज लोगों के विकास की अवधारणा की परिधि इस कदर संकुचित हो गयी है की विकास का मतलब लोग चकाचौंध, बड़ी बड़ी फैक्ट्रीयों और इमारतों तक ही लगा पा रहे हैं। क्या औद्योगीकरण करने भर से देश का विकास संभव है ? क्या विकास के पाश्चात्य की अवधारणा ही असल मायने में भारत के लिए भी मान्य होगी ? ऐसे ही कुछ गंभीर बिंदु हैं जिन पर विचार और बहस की जरुरत है।
औद्योगिक क्षेत्र में वर्षों से निरंतर आगे बड़ रहे एशिया के सबसे समृद्ध और विकसित राष्ट्र चीन की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से उद्यगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर निर्भर है। हाल में जब सभी राष्ट्र वैश्विक मंदी से जूझ रहे थें तो चीन द्वारा निर्यात की गयी वस्तुओं की मांग पर भी नकारात्मक असर पड़ा और इसकी मांग में भारी गिरावट देखने को मिली जिसके कारण चीन की अर्थव्यवस्था पर भी दुर्गम प्रभाव पड़ा। यही कारण है की चीन को अपने निर्यात को तेज़ करने के लिए अपने मुद्रा का उन्मूलन करना पड़ा।
औद्योगीकरण को बढ़ावा देना एक हद तक वाज़िब हो सकता है पर इसका ये अर्थ नही की वर्षों से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि को कम आँका जाए।
वर्त्तमान स्थिति में किसानों की हो रही दुर्दशा एक गंभीर मसला है। 1960 में जब देश में हरित क्रांति की नींव रखी गई तो देश के कृषि उत्पाद में बढ़ोत्तरी हुई पर किसानों की स्थिति बदतर ही रही जिसके कारण आये दिनों किसानों के आत्महत्या जैसी खबरें आम सी हो गई हैं।ग्रामीण भंडारण योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना जैसे कई किसान हित की महत्वाकांक्षी योजनाओँ पर अरबों रूपये फूंकने के बाद भी स्थिति में सुधार होता नज़र नहीँ आ रहा। 1995 में जहाँ 10,720 किसानों ने आत्महत्या किया वहीँ 2004 में ये ग्राफ़ उछल कर 18,241 का आंकड़ा छू लिया। पिछले कई सालों की स्थिति में सुधार दर्ज करते हुए 2013 में 11,772 किसानों के आत्महत्या की खबर आई पर 2014 में स्थिति फिर से बिगड़ कर 12,360 पर पहुँच गई। आंकड़ों की माने तो किसानों की आत्महत्या में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा है। महाराष्ट्र में 2012 में 3,789 आत्महत्याओं को दर्ज किया गया तो वही जनसंख्या के नज़रिये से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश 745 मौतों के साथ छठे स्थान पर विराजमान हुआ तो बिहार में भी 68 किसानों ने आत्महत्या किया।
देश में औद्योगीकरण को बढ़ावा देना अच्छी बात है पर इस चक्कर में वर्षों से देश के अन्नदाता की ऐसी अनदेखी भविष्य के लिए अच्छे संकेत नही हैं। वर्षों से देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का अतिमहत्वपूर्ण योगदान रहा है ऐसे में किसानों को बदहाली से निज़ात दिलाने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए।
कृषि, अर्थव्यवस्था और किसान
Reviewed by Kehna Zaroori Hai
on
05:43
Rating:
Reviewed by Kehna Zaroori Hai
on
05:43
Rating:

No comments: