हमारी हिंदी




@iamshubham
हमारी हिंदी- इस वाक्य से ही हिंदी के लिए
हमारा अपनापन हमारा प्यार झलक रहा है। आज
का हमारा यह दौर बदलाव का दौर है और बदलाव
तभी होता है जब हम अपनी पुरानी बातों को, पुराने
ढंग को, पुरानी धारणाओं को पीछे छोड़ एक नए युग
की ओर अग्रसर होते हैं। बदलाव के इसी धारणा को मन
में बिठाकर समाज के कुछ लोग इस भ्रांति मे जी रहे
कि हमारी हिंदी अब कमजोर पड़ रही है, यह अशुद्ध
हो चुकी है तथा यह अपने अंत की ओर बढ़ रही है। पर सवाल
उठता है कि इस तरह का जन धारणा किस हद तक
तर्कसंगत है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें
हिन्दी के इतिहास को खंगालना होगा, हिंदी के
भविष्य को जानने के लिए हमें हिन्दी के भूत
को जानना होगा।
हिंदी शब्द की उत्पत्ति सिंधु नदी से जुड़ी हुई है, सिंधु
नदी आसपास का क्षेत्र सिंधु प्रदेश कहा गया। धीरे
धीरे विश्व के विभिन्न भागों के
लोगों का स्थानांतरण हुआ अंत में ईरानीयों के संपर्क में
आ कर सिंधु का नाम बिगड़ कर हिंदी बना।
हिंदी भाषा का विकास जिस लिपि से हुआ वह विश्व
की सबसे पुरानी लिपि देवनागरी है। इसकी एक
विशेषता है कि इसके अंदर विश्व के शब्दों को खुद में
समाहित कर लेने की क्षमता है। इस कारण बढ़ते समय के
साथ साथ हिंदी का विकास एवं विस्तार परस्पर हुआ।
समाज के कुछ लोगों का मानना है हिंदी में दूसरे
भाषाओं के शब्दों के समागम से हिन्दी प्रदूषित
हो रही है इसके अपने शब्द कहीं गुम हो रहे हैं, इसके स्तर में
गिरावट आई है। पर सत्य तो यह है यदि हम
किसी भी भाषा को सीमा के भीतर रखे तो जिस
तरह से काफी दिनों तक एक ही जगह में जमा हुआ
पानी बदबू देता है उसी प्रकार सीमा के अंदर उस
भाषा का भी विकास स्थूल पड़ जाता है। जिस
प्रकार नदी के प्रवाह की प्रवृत्ति ऊँचाई से धरातल
की ओर होती है उसी प्रकार भाषा की भी यह
प्रवृत्ति होती है की वह आमजन के तमाम शब्दों को खुद
में समाहित करते हुए लगातार सरलता की ओर अग्रसर
होती है और इस प्रकार से
किसी भी भाषा का विस्तार एवं विकास व्यापक रूप
से संभव हो पाता है। आज यदि हिंदी हमारे बीच इतने
विस्तृत रूप से अपना प्रभाव बनाई है
तो कहीं ना कहीं इसका यही कारण है।
१८५७ में पहले विद्रोह का हुंकार
हो या महात्मा गाँधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन,
आजाद भारत के प्रधानमंत्री का आमजन को संबोधित
किया गया पहला भाषण हो या आजादी के ६६
वर्षों बाद १६वें लोकसभा चुनाव के बाद
प्रधानमंत्री जी का भाषण सबके ललकार के
शब्दों की आत्मा में हिंदी ही बसी।
आज हमारे समाज में कहीं चूक हो रही तो वह ये है कि हम
हिंदी के महत्व को अंदेखा कर रहे हैं, खुद को वैश्विक स्तर
पर स्थापित करने के लिए हम अंग्रेजी की शरण में जा रहे
हैं।इससे हिंदी की तो नहीं पर हाँ,
हमारी अपनी पहचान पर जरूर खतरा है।
किसी भी राष्ट्र के निर्माण में भौगोलिक
विविधता एक बिंदु होती है पर
कहीं ना कहीं भाषा भी एक महत्वपूर्ण बिंदु होती है।
उदाहरण के तौर पर बंगाल का एक अंग अलग हुआ और
उसका नामकरण भाषाई आधार पर हुआ ' बांग्लादेश',
पाकिस्तान जब हिन्दुस्तान से अलग हुआ
तो पाकिस्तान के निर्माण में कहीं ना कही उर्दू
का भी योगदान रहा है।
समाज का कुछ तबका अंग्रेजी को धड़ल्ले से आत्मसात
कर रहा क्योंकि उनके अनुसार
अंग्रेजी जानना उनकी सामाजिक
प्रतिष्ठा का पैमाना है, पर सच तो यह है
की हिंदी जितना संमृध, सुसज्जित, संस्कारी, विस्तृत
और गरिष्ठ है उतनी विश्व की कोई भाषा नहीं है।
दूसरे भाषाओं का ज्ञान होना सराहनीय है पर
वैश्वीकरण के इस होड़ में हमारे लिए
हिन्दी को अपनी पहचान बनाए रखना एक
बड़ी चुनौती है।



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